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Monday 27 June 2016

जीवन के संघर्ष में केवल पढ़ाई बनी साथिन, शिक्षिका गीता खत्री की कहानी

बाड़मेर. बेटियों को नहीं पढ़ाने वाले माता-पिता को यह अहसास हो जाए कि पढ़ाई के बिना उनकी बेटी की जिंदगी कितनी संकट में पड़ सकती है तो वे पढ़ाई जरूर करवाएंगे। कई बेटियां जीवन में उस वक्त अकेली पड़ गईं जब उनके जीवन साथी छोड़ गए या फिर नि:शक्त होने पर और कोई सहारा न दिखा।
केवल पढ़ाई ही इनकी साथिन बनी और आज वे स्वयं सक्षम है बल्कि परिवार की हर जिम्मेदारी वहन कर रही है। वे सामाजिक तौर पर भी सक्षम हैं।
पांवों से नि:शक्त गीता पढ़ाई के बूते खुद के पांवों पर खड़ी हो गई है। जीवनसाथी ने साथ छोड़ा तो पढ़ाई को साथिन बनाकर छगनी आत्मनिर्भर हो गई। शीला ने अपने दु:ख के दिनों में पढ़ाई से नाता जोड़ा और शिक्षिका बन गई तो खुद और परिवार दोनों को संभाल लिया। एेसे दर्जनों उदाहरण हैं जब बेटियों ने पढ़ाई के बूते खुद की जिंदगी के दु:खों को दूर किया। ये बेटियां कहती हैं कि भूले से भी बेटी की पढ़ाई नहीं छुड़वाएं। यह अभिभावकों की बड़ी भूल साबित हो सकती है।
जब छाया अंधेरा तो शीला को दी शिक्षा ने रोशनी
राउप्रावि रेलवे कुआं नंबर तीन में कार्यरत शीला ने जीवन संघर्ष को पढ़ाई के बूते ही जीता। उसके परिवार की खुशहाली के लिए सबसे बुरा वक्त आया, जब उसके पति का आकस्मिक निधन हो गया। तीन छोटे-छोटे बच्चे। उनकी परवरिश और खुद को संभालना। केवल 8वीं तक ही पढ़ी शीला ने जिंदगी के इस संघर्ष को जीतने के लिए फिर से किताबें थाम ली और पढऩा शुरू किया। लगातार मेहनत कर वह पढ़ी और शिक्षिक की नौकरी हासिल कर ली। शीला कहती हैं कि पढ़ाई ही एकमात्र जरिया है जो आपको सशक्त बनाता है। बेटियों को हर हाल में पढ़ाएं एवं आगे बढ़ाएं। यदि वह नहीं पढ़ती तो परिवार को संभाल पाना मुश्किल था।
हमसफर का साथ छूटा तो पढ़ाई बनी सहारा
भिंयाड़ गांव की छगनी की शादी को महज साढ़े चार साल ही हुए थे। अचानक पति की तबीयत खराब हुई और कुछ ही दिनों में जीवनभर का साथ निभाने का वादा करने वाला साथी छोड़ गया। छगनी के लिए यह सदमा इतना असहनीय हो गया कि उसके सामने जीवन भर का अंधेरा छा गया। उसके जिम्मे अब खुद के साथ बच्चे को संभालना भी था। उसको लगा कि अब जीवन संघर्ष कैसे जीतेगी? लेकिन उसके पति ने जीते जी उसको एक बात के लिए पूरा सहयोग किया कि वो अपनी पढ़ाई नहीं छोड़े। बारहवीं पास छगनी को पति ने बीए और बीएड तक पढ़ाया था। उसने पढ़ाई को जारी रखते हुए प्रतियोगी परीक्षाएं देना शुरू किया और वन विभाग में वन रक्षक पद पर चयनित हो गई। छगनी कहती है कि नौकरी लगने के बाद अब उसे आभास होता है कि वह नहीं पढ़ी होती तो कितना संघर्ष करना पड़ता? अब वह आर्थिक रूप से कभी कमजोर नहीं होगी। वह बेटियों को 10वीं से आगे पढऩे की बात कहती है।
नि:शक्त गीता बेटी नहीं बेटा बनी घर का
रॉय कॉलोनी निवासी और रामावि महाबार की शिक्षिका गीता खत्री। उसका जन्म ही संघर्ष के दौर से शुरू हुआ। जन्म से नि:शक्त गीता को असक्षमता ने घेर लिया। पिता की आर्थिक स्थिति भी कमजोर। परिवार के लिए मुश्किलों की कमी नहीं थी। गीता के लिए स्कूल आना-जाना भी परेशानियों भरा था, लेकिन उसने पढ़ाई से कभी मुंह नहीं मोड़ा। दसवीं से आगे पढ़ी और इसके बाद शिक्षिका लग गई। आज नि:शक्त गीता न केलव खुद के पांवों पर खड़ी है बल्कि अपने पिता के लिए भी बेटे की भूमिका अदा कर रही है। वह कहती है कि पढ़ाई जीवन का सबसे बड़ा सहारा है। ब्ेटियों के लिए तो पढ़ाई बहुत ही जरूरी है, क्योंकि बेटी पढ़ाई नहीं करेगी तो पूर्णत: आश्रित हो जाएगी। उसके जीवन में बुरा दौर आने पर कोई साथ नहीं देगा। एेसे में पढ़ाई कभी दगा नहीं देती।
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