राजनीति: शिक्षा, शिक्षक और समाज - The Rajasthan Teachers Blog - राजस्थान - शिक्षकों का ब्लॉग

Subscribe Us

ads

Hot

Post Top Ad

Your Ad Spot

Monday 5 March 2018

राजनीति: शिक्षा, शिक्षक और समाज

पिछले दिनों एक समाचार के शीर्षक ने सभी का ध्यान आकर्षित किया- ‘देशमें डेढ़ लाख शिक्षक स्कूल नहीं जाते!’ इस समाचार के चलते शिक्षकों की साख पर बट्टा लगा।
यह अलग बात है कि कुछ समय पहले, शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिष्ठित एक एनजीओ ने अपनी विस्तृत शोध-रिपोर्ट में इसके ठीक विपरीत स्थिति बयान की थी और शिक्षकों की अनुपस्थिति का कारण उनका शैक्षणिक काम से ही अन्यत्र जाना बताया था। यहां समाचार की सच्चाई की पड़ताल करना -उद्देश्य नहीं है। पर यह जानना जरूरी है कि पूरे देश में सरकारी स्कूलों के निजीकरण की सुगबुगाहट क्यों बनी हुई है? और इसका सारा ठीकरा सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के सिर ही क्यों फोड़ा जा रहा है? प्रद्युम्न जैसे मामले को लेकर तो अब निजी स्कूल और भी कठघरे में आ गए हैं। ऐसी स्थिति में इस तरह का कदम किस ओर ले जाएगा? आज भी अधिकांश जगह सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों में प्रमुखों के तौर पर शासकीय विद्यालयों से निकली पीढ़ी ही कार्यरत है। फिर भी इनका निर्माता शिक्षक कहां और किस मुकाम पर पहुंचा दिया गया है, इस पर विचार-मंथन जरूरी है। लगभग संपूर्ण देश में ही शिक्षकों की संख्या कम होने के बावजूद मानव संसाधन के विकास के प्रति हमारी बेरुखी घोर निराशा उत्पन्न करती है।
हर प्रदेश में शिक्षकों की नियुक्ति, सेवा शर्तों, नियमितीकरण, स्थायीकरण और वेतन-भत्तों को लेकर आंदोलन हो रहे हैं। मानव संसाधन के निर्माताओं की चिंता किसी को नहीं! हर जगह शिक्षकों को लानतें या लाठियां मिल रही हैं। अब बताइए कि वे शिक्षा की धुरी में कहां रहे? उन पर लगभग समाप्त हो चुका विश्वास कैसे बहाल हो? समय-समय पर शिक्षाविदों द्वारा राष्ट्र की मुख्य धुरी शिक्षा और शिक्षकों को लेकर जो सुझाव या अनुशंसाएं दी जाती रही हैं। उनका हाल क्या होता है इसका अंदाजा केवल इसी एक उदाहरण से लगाया जा सकता है जब पिछले साल अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त एक जाने-माने शिक्षाविद का दर्द सामने आया। उनकी वर्षों पूर्व की गई अनुशंसाओं को कोई तवज्जो नहीं दी गई। मामला फिर चाहे बच्चों पर बस्तों के बढ़ते बोझ का हो या संपूर्ण राष्ट्र में एक जैसी शिक्षक भर्ती का या फिर अखिल भारतीय शिक्षा सेवा के गठन का, शिक्षाविदों की सलाह और अनुशंसाएं क्या अपने अंजाम तक पहुंच पाती हैं? यह एक यक्ष प्रश्न है। जो भी योजनाएं लाई और लागू की जाती हैं उनमें शिक्षकों के मैदानी अनुभवों को कोई तवज्जो नहीं मिलती, न ही नीतिगत फैसलों में उनकी उपलब्धियों का लाभ मिलता है!शैक्षिक गुणवत्ता और नवाचार एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। शिक्षक, शैक्षिक गुणवत्ता की मुख्य धुरी हैं और वह तभी तक शिक्षक है जब तक वह एक शिक्षार्थी है। शिक्षार्थी ही नवाचार कर सकते हैं और शैक्षिक गुणवत्ता ला सकते हैं। नवाचार के लिए शिक्षक का न केवल मनोवैज्ञानिक तौर पर मजबूत होना जरूरी है बल्कि उसमें शैक्षिक गुणवत्ता में अभिवृद्धि के लिए भीतर से कुछ नया कर गुजरने की तथा अपने विद्यार्थियों में अधिगम को अभिरुचिपूर्ण बना कर उसे अधिकतम आनंददायी बनाने की तीव्र उत्कंठा होनी चाहिए। इसके बिना नवाचार के प्रयत्न फलीभूत नहीं होंगे। रचनात्मक प्रेरणा इस संबंध में बहुत महत्त्वपूर्ण और कारगर घटक होती है। सामान्यत: इस प्रकार के प्रोत्साहन का हमारे यहां अभाव पाया जाता है।
विद्यालयों में जिस प्रकार से विद्यार्थियों की उपस्थिति गिर रही है और शिक्षा की गुणवत्ता खत्म हो रही है उससे यह स्पष्ट होता है कि शिक्षणेतर कार्यों से शिक्षक इतना अधिक दबाव महसूस कर रहा है कि उसके लिए नवाचार का मानस बनाना लगभग असंभव होता जा रहा है। फेल हो जाने का भय पूर्णत: समाप्त होने से विद्यार्थियों में जो उच्छृंखलता बढ़ी वह अपूर्व है। हालांकि परिपक्व नवाचारों का सृजन अभावों, संघर्षों और विपरीत परिस्थितियों में ही होता है। पर शिक्षक के लिए प्रेरक वातावरण का सृजन नहीं हो पाना निश्चित रूप से कहीं न कहीं एक प्रश्नचिह्न पैदा अवश्य करता है। शैक्षिक गुणवत्ता और नवाचार केवल एक शैक्षिक या अधिगम प्रक्रिया नहीं है बल्कि यह प्रकल्प संपूर्ण शैक्षिक वातावरण को प्रभावित करता है। शैक्षिक गुणवत्ता में अभिवृद्धि के लिए अत्यंत आवश्यक है कि शिक्षक के ‘योगक्षेम’ को व्यावहारिक और सुरक्षित बनाने के साथ उसे सृजन-मनन, चिंतन, ध्यान, पर्यटन और अभिरुचि को विकसित करने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध करवाए जाएं। शिक्षक की एकाग्रता बढ़ाने के लिए इन सारे प्रयासों का ईमानदारी के साथ निर्वहन यथार्थ में होना आवश्यक हो गया है। शिक्षक को अपने कर्तव्य और विद्यालयीन गतिविधियों को रोचक बनाने के लिए और अपने विद्यार्थियों के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिए नित नवीन पद्धतियों को अपने अध्यापन का हिस्सा बनाना पड़ेगा। इसके लिए उसे स्थानीय जरूरतों के साथ आधुनिक समय में हो रहे बदलावों पर भी अपना ध्यान केंद्रित करना होगा ताकि शिक्षार्थी नवाचार में रुचि ले सके और शैक्षिक गुणवत्ता हासिल की जा सके! संपूर्ण राष्ट्र में एक जैसी शिक्षा प्रणाली, एक जैसे शिक्षालय और एक समान शिक्षकों का सपना पूरा होता नहीं लगता। हालांकि राज्य शिक्षा को प्रदेश सरकार के नियंत्रण में रखने के पीछे मुख्य उद्देश्य स्थानीय जरूरतों के अनुसार शिक्षा का प्रबंध करना है, फिर भी शिक्षा की मुख्य धुरी शिक्षक को अध्यापन के साथ शोध, नवाचार और अपनी अंतर्निहित प्रतिभा के उपयोग के लिए यदि प्रेरणादायक और समुचित वातावरण न मिले तो शिक्षा को मिशन समझ कर इस क्षेत्र में आने वाले युवा गहरी निराशा का शिकार होते हैं। संपूर्ण देश के शिक्षालयों में भावी पीढ़ी के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ देने वालों की कमी नहीं है। पर शिक्षकों में शासन के बढ़ते अविश्वास, विभिन्न वर्गों के शिक्षकों के बीच वर्ग-भेद और वेतन विसंगतियों तथा शिक्षक को शिक्षणेतर कामों में झोंक देने से उनकी क्षमताओं पर बेहद विपरीत प्रभाव पड़ा है।

आज शिक्षक अपने मूल काम से दूर होता जा रहा है। उसका पठन-पाठन छूटता जा रहा है। इसका दोषी कौन है? माना जाता है कि जो किसी और क्षेत्र में नहीं जा पाते, वे शिक्षक बन जाते हैं। पर यह मान बैठना उन विद्वान व समर्पित शिक्षकों के मन-मष्तिष्क पर कुठाराघात है जो अपने पास संचित ज्ञान, विशेषज्ञता और निपुणता को नई पीढ़ी को हस्तांतरित करना चाहते हैं। आज शिक्षा विभाग में ऐसे शिक्षकों की कमी नहीं है जो अन्य विभागों से संबंधित पदों को अस्वीकार कर या बेहतर समझे जाने वाले पदों को त्याग कर यहां बने हुए हैं। यहां तक कि कई आइएएस अफसरों ने भी अध्यापन को प्रशासनिक कार्यों से अधिक तरजीह दी है और अफसरी करने के बजाय शिक्षक-कर्म को अपना ध्येय बना लिया। भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम स्वयं को शिक्षक कहलाना अधिक पसंद करते थे। पर कलाम को अपना आदर्श मान कर चलने वाले हमारे कर्णधारों ने शिक्षक को दोयम दर्जे का समझ कर उसे हतोत्साहित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसी दशा में शिक्षकों से उनका सर्वश्रेष्ठ दे पाने की आशा व्यर्थ है। आज निजीकरण की आहट के बीच शिक्षकअपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। सरकारी क्षेत्र में विसंगतिपूर्ण वेतन, प्रेरक सुविधाओं के अभाव और सेवानिवृत्ति के बाद भी एक विपन्न जिंदगी के भय के चलते भावी नागरिकों के लिए कुछ हट कर गुजरने का कोई भाव आज की शिक्षक पीढ़ी में प्रवाहित होते नहीं दिखता। निजी क्षेत्र तो शोषण का पर्याय बन गया है अब। इसका जिम्मेदार बहुत हद तक हमारे समाज का परिवर्तित नजरिया भी है!

No comments:

Post a Comment

Recent Posts Widget
'; (function() { var dsq = document.createElement('script'); dsq.type = 'text/javascript'; dsq.async = true; dsq.src = '//' + disqus_shortname + '.disqus.com/embed.js'; (document.getElementsByTagName('head')[0] || document.getElementsByTagName('body')[0]).appendChild(dsq); })();

Advertisement

Important News

Popular Posts

Post Top Ad

Your Ad Spot

Copyright © 2019 Tech Location BD. All Right Reserved