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ऐसा कई बार लगता है कि शायद आजकल गुरु के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव शेष ही नहीं रहा। व्यवसाय के रूप में जब शिक्षा स्थापित हो रही है, तब यह असंभव सोच है कि शिक्षा देने वाले गुरुओं के प्रति आदर की भावनाएं उत्पन्न हों।
जब फीस की बहुत बड़ी राशि देकर शिक्षा प्राप्त की जाए, तब शिक्षक के प्रति भी यही विचार उठता है कि वह तो एक कर्मी है जो वेतन लेकर अपना कार्य पूरा करता है और यहीं उसके कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है, तब यह कैसे संभव है कि उसके प्रति सम्मान की भावनाएं जागे?
इन प्रश्नों को करने से पहले यह विचार मन में अवश्य ले आना चाहिए कि आजकल शिक्षक व अध्यापक बनना उस कार्य में शामिल नहीं रह गया है कि कोई अन्य व्यवसाय न मिला तो शिक्षक बन गए। आजकल बकायदा शिक्षक बनने का प्रशिक्षण लेना होता है। यहां तक कि छोटे-नन्हें बच्चों को पढ़ाने की भी मॉन्टिसेरी ट्रेनिंग होती है और ऊंची व स्थापित कक्षाओं में तो पढ़ाने के लिए बीएड और एमएड तक की डिग्री लेना आवश्यक हो गया है। जो व्यक्ति इन डिग्रियों को लेकर अध्यापन के क्षेत्र में उतरेगा या उसे अपनाएगा उसे इतनी तो प्रशिक्षण मिल ही चुका होगा कि उसे विद्यार्थियों से किस प्रकार व्यवहार करना है तथा उन्हें किस प्रकार से शिक्षा देना है। इन डिग्रियों को प्राप्त करने वाले इतना तो सुनिश्चित कर चुके होते हैं कि उन्हें केवल अध्यापन का कार्य करना है और भविष्य में शिक्षक ही बनना है। जब शिक्षा एक व्यवसाय बन चुका है तो इस व्यवसाय में केवल वहीं टिके रह सकते हैं, जो पूरी कुशलता व प्रवीणता के साथ इस कार्य को संपन्न करें, नहीं तो अन्य व्यवसायों की भांति वे भी इस व्यवसाय से बाहर कर दिए जाएंगे। शिक्षा के निजी क्षेत्र में जाने से अब शिक्षकों को अपना बेहतर से बेहतर करके दिखना होता है।
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