आबूरोड शादी या अन्य प्रसंगों पर लजीज व्यंजन बनाने वाले कैटरर्स की गणका गांव में भरमार है और साख भी, पर इस आदिवासी बहुल गांव के राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय में पोषाहार पकाने के लिए खोजने पर भी कोई नहीं मिलता।
दिलचस्प तो यह है कि ये सभी कैटरर्स आदिवासी युवा है और बड़े समारोह या शादी-ब्याह में ये बड़े-बड़े कान्ट्रेक्ट लेते है।
आबूरोड, अहमदाबाद, मुम्बई व बैंगलूरु तक ये हलवाई की दुकानों में मिठाइयां बनाने का काम करते हैं। वैसे 262 बच्चों के नामांकन वाले इस स्कूल में पोषाहार पकाने के लिए गांव की ही दो आदिवासी महिलाएं लगी हुई है, लेकिन समस्या तब आती है जब उनमें से कोई एक या दोनों किसी काम से स्कूल नहीं आ सकती।
तब उनके एवज में पोषाहार पकाने वाला कोई नहीं मिलता। उस समय स्कूल प्रबंधन बेबस हो जाता है।
कम मेहनताना रोकता है आने को
स्कूल प्रबंधन के मुताबिक ऐसा नहीं है कि गांव में अन्य महिलाएं पोषाहार पकाना नहीं जानती। सभी महिलाएं भली-भांति पोषाहार पका सकती है पर पोषाहार पकाने वाली को जो मानदेय मिलता है वह बहुत ही कम होने से अन्य महिलाओं को वहां आने से रोकता है।
घर के अधिकतर युवा हलवाई व कूक का काम करते होने से अच्छी खासी कमाई कर लेते हैं। महिलाएं मजदूरी कर लेती है।
कई कमठों पर जाती है तो कई दूसरी मजदूरी पर। वहां उन्हें करीब ढाई सौ से तीन सौ रुपए की दिहाड़ी आसानी से मिल जाती है। ऐसी सूरत में वे महज तीस-पैतीस रुपए की दिहाड़ी के लिए पोषाहार पकाना क्यों पसंद करेगी।
तब हालत हो जाती है खस्ता
प्रधानाध्यापक खूबीराम के अनुसार पोषाहार पकाने वाली जीवीबाई व वाजूबाई किसी घरेलू या पारिवारिक या सामाजिक काम से कभी नहीं आ पाती या दो-चार दिन के अवकाश पर चली जाती है तब उनकी एवज में पोषाहार पकाने वाला कोई आने को राजी नहीं होता।
उस समय स्कूल प्रबंधन भी पसोपेश की स्थिति में आ जाता है। कई बार तो पोषाहार पकाना लोहे के चने चबाने जैसा हो जाता है।उन्होंने तो यहां तक बताया कि ये दो महिलाएं चली जाएगी, उसके बाद शायद ही कोई पोषाहार पकाने वाला मिले।
शहर से सटा होने के कारण स्थानीय लोगों को शहर में मजदूरी मिल जाती है और दिहाड़ी भी अच्छी मिल जाती है तो कोई क्यों पसंद करेगा पोषाहार पकाना। कभी कोई आ भी जाए तो शिक्षकों के सहयोग किए बिना पोषाहार पकाना मुश्किल हो जाता है।
उधारी में पक रहा है पोषाहार
संस्था प्रधान के अनुसार पोषाहार सामग्री का समय पर भुगतान नहीं मिलने से कई बार सामग्री उधार में लाकर काम चलाना पड़ता है। प्रति सप्ताह पोषाहार के लिए तेल, मसाले, ईंधन व अन्य सामग्री की व्यवस्था संस्था प्रधान व पोषाहार प्रभारी को अपने स्तर पर या उधारी से करनी पड़ रही है।
तीन माह से सामग्री का पैसा नहीं मिला। सबसे अधिक परेशानी कुक कम हेल्पर की है। उन्हें तीन माह से भुगतान नहीं मिला। अव्वल तो कोई कुक स्कूल में आने को तैयार नहीं होता और कोई आता है तो समय पर भुगतान नहीं किया जाता।
संस्था प्रधान ने बताया कि कुक का दो माह का भुगतान बकाया चल रहा है। हालांकि, कुक को उन्होंने अपनी जेब से भुगतान कर दिया है।
सरकारी नौकरी - Army /Bank /CPSU /Defence /Faculty /Non-teaching /Police /PSC /Special recruitment drive /SSC /Stenographer /Teaching Jobs /Trainee / UPSC
दिलचस्प तो यह है कि ये सभी कैटरर्स आदिवासी युवा है और बड़े समारोह या शादी-ब्याह में ये बड़े-बड़े कान्ट्रेक्ट लेते है।
आबूरोड, अहमदाबाद, मुम्बई व बैंगलूरु तक ये हलवाई की दुकानों में मिठाइयां बनाने का काम करते हैं। वैसे 262 बच्चों के नामांकन वाले इस स्कूल में पोषाहार पकाने के लिए गांव की ही दो आदिवासी महिलाएं लगी हुई है, लेकिन समस्या तब आती है जब उनमें से कोई एक या दोनों किसी काम से स्कूल नहीं आ सकती।
तब उनके एवज में पोषाहार पकाने वाला कोई नहीं मिलता। उस समय स्कूल प्रबंधन बेबस हो जाता है।
कम मेहनताना रोकता है आने को
स्कूल प्रबंधन के मुताबिक ऐसा नहीं है कि गांव में अन्य महिलाएं पोषाहार पकाना नहीं जानती। सभी महिलाएं भली-भांति पोषाहार पका सकती है पर पोषाहार पकाने वाली को जो मानदेय मिलता है वह बहुत ही कम होने से अन्य महिलाओं को वहां आने से रोकता है।
घर के अधिकतर युवा हलवाई व कूक का काम करते होने से अच्छी खासी कमाई कर लेते हैं। महिलाएं मजदूरी कर लेती है।
कई कमठों पर जाती है तो कई दूसरी मजदूरी पर। वहां उन्हें करीब ढाई सौ से तीन सौ रुपए की दिहाड़ी आसानी से मिल जाती है। ऐसी सूरत में वे महज तीस-पैतीस रुपए की दिहाड़ी के लिए पोषाहार पकाना क्यों पसंद करेगी।
तब हालत हो जाती है खस्ता
प्रधानाध्यापक खूबीराम के अनुसार पोषाहार पकाने वाली जीवीबाई व वाजूबाई किसी घरेलू या पारिवारिक या सामाजिक काम से कभी नहीं आ पाती या दो-चार दिन के अवकाश पर चली जाती है तब उनकी एवज में पोषाहार पकाने वाला कोई आने को राजी नहीं होता।
उस समय स्कूल प्रबंधन भी पसोपेश की स्थिति में आ जाता है। कई बार तो पोषाहार पकाना लोहे के चने चबाने जैसा हो जाता है।उन्होंने तो यहां तक बताया कि ये दो महिलाएं चली जाएगी, उसके बाद शायद ही कोई पोषाहार पकाने वाला मिले।
शहर से सटा होने के कारण स्थानीय लोगों को शहर में मजदूरी मिल जाती है और दिहाड़ी भी अच्छी मिल जाती है तो कोई क्यों पसंद करेगा पोषाहार पकाना। कभी कोई आ भी जाए तो शिक्षकों के सहयोग किए बिना पोषाहार पकाना मुश्किल हो जाता है।
उधारी में पक रहा है पोषाहार
संस्था प्रधान के अनुसार पोषाहार सामग्री का समय पर भुगतान नहीं मिलने से कई बार सामग्री उधार में लाकर काम चलाना पड़ता है। प्रति सप्ताह पोषाहार के लिए तेल, मसाले, ईंधन व अन्य सामग्री की व्यवस्था संस्था प्रधान व पोषाहार प्रभारी को अपने स्तर पर या उधारी से करनी पड़ रही है।
तीन माह से सामग्री का पैसा नहीं मिला। सबसे अधिक परेशानी कुक कम हेल्पर की है। उन्हें तीन माह से भुगतान नहीं मिला। अव्वल तो कोई कुक स्कूल में आने को तैयार नहीं होता और कोई आता है तो समय पर भुगतान नहीं किया जाता।
संस्था प्रधान ने बताया कि कुक का दो माह का भुगतान बकाया चल रहा है। हालांकि, कुक को उन्होंने अपनी जेब से भुगतान कर दिया है।
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