6से 14 वर्ष के बच्चे - 2053
6 से 10 वर्ष के बच्चे - 1397
11 से 14 वर्ष के बच्चे - 657
ये आंकड़े विभागीय है।
हकीकत में बाल श्रम से जुड़ी संस्थानों के मुताबिक 6300 से अधिक बच्चे है।
हेमंत पंड्या| बांसवाड़ा हरसाल शिक्षा विभाग और सर्वशिक्षा अभियान की ओर से बांसवाड़ा जिले में शिक्षा के ऊपर 5 करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं। सर्वशिक्षा अभियान के तहत 17 प्रकार की गतिविधियों का संचालन होता है, जिसमें से एक गतिविधि ऐसे बच्चों के लिए है, जो स्कूलों से दूर हैं, उन्हें स्कूलों से जोड़ना है।
फिर भी जिले में 6 हजार 300 बच्चे ऐसे है, जो स्कूलों की चौखट से दूर हैं। उन्हें स्कूल तक ले जाने में तो विभाग कोई भूमिका निभा रहा है और ही सर्वशिक्षा अभियान ने कोई प्रयास किए हैं।
आखिर आर्थिक मजबूरी के चलते ये बच्चों मध्यप्रदेश, गुजरात या फिर महाराष्ट्र में रोजगार के लिए चले जाते हैं और अपनी जिंदगी को इसी तरह से व्यवसाय में झोंक देते हैं। हाल ही में राज्य प्रारंभिक शिक्षा परिषद ने एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में बांसवाड़ा को लेकर जो आंकड़ा दिया है, वह भी चौंकाने वाला है। रिपोर्ट में संख्या 4 हजार 106 बताई गई है। हालांकि सत्र 2016-17 में यहीं आंकड़ा 6 हजार 300 का रहा है।
परिवारकी आर्थिक मजबूरी के चलते पढ़ाई छोड़ देते हंै बच्चे
अमेरिकाकी शोधकर्ता मेगन रीट करीब दो साल पहले बांसवाड़ा आई थी। उसने कुशलगढ़ और सज्जनगढ़ में तीन माह रहकर पलायन को लेकर एक रिपोर्ट तैयार की थी। बाद में एक कार्यक्रम आयोजित कर उस रिपोर्ट को सामने रखा था। जिसमें बताया गया था कि बांसवाड़ा में जो बच्चे बीच में पढ़ाई छोड़ कर कमाने जाते है, इसके पीछे मूल वजह परिवारों की आर्थिक मजबूरी है। लोगों के पास पैसा नहीं है, इसलिए बच्चों को सोयाबीन की कटाई, चाय की थड़ी, होटलों में काम करने के लिए भेज दिया जाता है। साथ ही एक बात यह भी सामने आई थी कि महाराष्ट्र के इंदौर, रतलाम, मुंबई आदि जगहों पर यहां के स्थानीय लोगों की काफी दुकानें हैं। इसलिए यह लोग उन्हें यहां से ले जाते हैं।
घरके कामों भी व्यस्तता भी एक कारण
दूसरीओर कई परिवारों में बच्चे ऐसे हैं, जो बकरियां चराते हैं, मनरेगा में मजदूरी करते हैं, खेती का काम करते हैं। ऐसे में माता पिता अन्य काम करते हैं। खास बात तो यह है कि इन लोगों को हमेशा ही साहूकार से कर्जा लेने की जरूरत होती है। इसी कर्ज को चुकाने में फसल खप जाती है और परिवार पर आर्थिक बोझ पड़ता है। ऐसे में बच्चों को कमाने भेजने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है।
^विभाग की ओर से पहले सर्वे कराया था। तब हमारे पास 18 हजार से ज्यादा बच्चों की संख्या थी। इसके बाद नामांकन के माध्यम से बच्चों को स्कूलों से जोड़ा गया। अब भी कई ऐसे बच्चे हैं, जो स्कूलों से दूर है। उन्हें जोड़ने के लिए अभियान चलाए जाएंगे। छुट्टियों में प्लानिंग तैयार होगी। उमेशअधिकारी, एडीपीसी सर्वशिक्षा अभियान
6 से 10 वर्ष के बच्चे - 1397
11 से 14 वर्ष के बच्चे - 657
ये आंकड़े विभागीय है।
हकीकत में बाल श्रम से जुड़ी संस्थानों के मुताबिक 6300 से अधिक बच्चे है।
हेमंत पंड्या| बांसवाड़ा हरसाल शिक्षा विभाग और सर्वशिक्षा अभियान की ओर से बांसवाड़ा जिले में शिक्षा के ऊपर 5 करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं। सर्वशिक्षा अभियान के तहत 17 प्रकार की गतिविधियों का संचालन होता है, जिसमें से एक गतिविधि ऐसे बच्चों के लिए है, जो स्कूलों से दूर हैं, उन्हें स्कूलों से जोड़ना है।
फिर भी जिले में 6 हजार 300 बच्चे ऐसे है, जो स्कूलों की चौखट से दूर हैं। उन्हें स्कूल तक ले जाने में तो विभाग कोई भूमिका निभा रहा है और ही सर्वशिक्षा अभियान ने कोई प्रयास किए हैं।
आखिर आर्थिक मजबूरी के चलते ये बच्चों मध्यप्रदेश, गुजरात या फिर महाराष्ट्र में रोजगार के लिए चले जाते हैं और अपनी जिंदगी को इसी तरह से व्यवसाय में झोंक देते हैं। हाल ही में राज्य प्रारंभिक शिक्षा परिषद ने एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में बांसवाड़ा को लेकर जो आंकड़ा दिया है, वह भी चौंकाने वाला है। रिपोर्ट में संख्या 4 हजार 106 बताई गई है। हालांकि सत्र 2016-17 में यहीं आंकड़ा 6 हजार 300 का रहा है।
परिवारकी आर्थिक मजबूरी के चलते पढ़ाई छोड़ देते हंै बच्चे
अमेरिकाकी शोधकर्ता मेगन रीट करीब दो साल पहले बांसवाड़ा आई थी। उसने कुशलगढ़ और सज्जनगढ़ में तीन माह रहकर पलायन को लेकर एक रिपोर्ट तैयार की थी। बाद में एक कार्यक्रम आयोजित कर उस रिपोर्ट को सामने रखा था। जिसमें बताया गया था कि बांसवाड़ा में जो बच्चे बीच में पढ़ाई छोड़ कर कमाने जाते है, इसके पीछे मूल वजह परिवारों की आर्थिक मजबूरी है। लोगों के पास पैसा नहीं है, इसलिए बच्चों को सोयाबीन की कटाई, चाय की थड़ी, होटलों में काम करने के लिए भेज दिया जाता है। साथ ही एक बात यह भी सामने आई थी कि महाराष्ट्र के इंदौर, रतलाम, मुंबई आदि जगहों पर यहां के स्थानीय लोगों की काफी दुकानें हैं। इसलिए यह लोग उन्हें यहां से ले जाते हैं।
घरके कामों भी व्यस्तता भी एक कारण
दूसरीओर कई परिवारों में बच्चे ऐसे हैं, जो बकरियां चराते हैं, मनरेगा में मजदूरी करते हैं, खेती का काम करते हैं। ऐसे में माता पिता अन्य काम करते हैं। खास बात तो यह है कि इन लोगों को हमेशा ही साहूकार से कर्जा लेने की जरूरत होती है। इसी कर्ज को चुकाने में फसल खप जाती है और परिवार पर आर्थिक बोझ पड़ता है। ऐसे में बच्चों को कमाने भेजने के अलावा कोई चारा नहीं बचता है।
^विभाग की ओर से पहले सर्वे कराया था। तब हमारे पास 18 हजार से ज्यादा बच्चों की संख्या थी। इसके बाद नामांकन के माध्यम से बच्चों को स्कूलों से जोड़ा गया। अब भी कई ऐसे बच्चे हैं, जो स्कूलों से दूर है। उन्हें जोड़ने के लिए अभियान चलाए जाएंगे। छुट्टियों में प्लानिंग तैयार होगी। उमेशअधिकारी, एडीपीसी सर्वशिक्षा अभियान
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