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जब शिक्षा नीति के नतीजे आने थे तब समिति बनी है

मोदी सरकारको सत्ता में आए तीन साल होने को आए लेकिन, शिक्षा नीति का कहीं अता-पता नहीं है, जबकि 2014 के चुनाव अभियान में शिक्षा में आमूल बदलाव का वादा भी प्रमुख था। अब ख्यात वैज्ञानिक कृष्णास्वामी कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में नौ सदस्यीय समिति गठित की गई है, जिसे कोई समय-सीमा तो नहीं दी गई है
लेकिन, समझा जाता है कि वह छह-सात महीने में अपनी रिपोर्ट देगी। उसके बाद कब इसे लागू किया जाएगा और उसके परिणाम कब दिखाई देंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। सही तो यह होता कि 2015 में पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमनियन की अध्यक्षता में बनाई समिति को सही ढंग से काम करने दिया जाता और शिक्षा नीति 2016 में लागू हो जाती तो सरकार कुछ करके दिखा सकती थी। बताते हैं कि उस समिति के कुछ सदस्यों की तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी से पटरी नहीं बैठी। उस समिति ने अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की तर्ज पर शिक्षा के लिए कैडर बनाने, यूजीसी को खत्म करने, पांचवीं तक परीक्षा लेने और प्राइमरी से अंग्रेजी पढ़ाने जैसे सुझाव दिए थे। अब कस्तूरीरंगन समिति से कहा गया है कि वह भारतीय शिक्षा को समकालीन स्वरूप दें और उसकी गुणवत्ता सुधारने के साथ उसे अंतरराष्ट्रीय बनाएं। सीधी-सी बात है कि कुल-मिलाकर शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने का मामला है और यह शिक्षकों के माध्यम से ही संभव है। अच्छी शिक्षा व्यवस्था के लिए योग्य शिक्षकों की नियुक्ति सबसे बड़ी चुनौती है। हमारे देश में ज्ञान, बुद्धमत्ता और प्रतिबद्धता के कारण शिक्षकों का बड़ा सम्मान था लेकिन, पिछले कुछ दशकों में शिक्षक वह सम्मान गंवा बैठे हैं। इसलिए सबसे बड़ी चुनौती शिक्षक की प्रतिष्ठा बहाल करने की है। उनकी प्रतिष्ठा तब बहाल होगी जब वे अपने दायित्व की कसौटी पर खरे उतरें। इसके लिए बदलते समय के अनुरूप प्रशिक्षण की जरूरत है। स्कूलों में योग्य प्रशासन के लिए हैडमास्टर अथवा प्रिंसिपल होना जरूरी है। अभी तो यह हालत है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षकों में से ही कोई हैडमास्टर की भूमिका निभा लेता है। हमें यह भी समझना होगा कि किसी दफ्तर में कागजों फाइलों में काम करने वाले कर्मचारी से शिक्षक के काम की तुलना नहीं की जा सकती। वह जीते-जागते बच्चों को गढ़ते हैं, जो बहुत श्रमसाध्य और धीरज से किया जाने वाला काम है। ऐसे में कुशल शिक्षक पर ही नई नीति का फोकस होना चाहिए। 

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