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पहली भर्ती दो नंबर से चूके, 13 साल में 12 इम्तिहान हार नहीं मानी, आखिरी भर्ती में कट ऑफ पार

भास्कर संवाददाता | बांसवाड़ा यह विशाल पंड्या के शिक्षक बनने की जिद की कहानी है। 13 साल का लंबा इंतजार और 12 इम्तिहान। कई बार ऐसा लगा िक हिम्मत टूटने लगी है। लेकिन इरादा अटल था। आखिर दिसंबर 2017 को जारी रीट के परिणाम में उनका सपना साकार हो गया।
लोधा सत्यम नगर निवासी विशाल पंड्या ने संघर्ष में हार नहीं मानी। 2004-05 बीएड की परीक्षा पास करने के साथ ही उनका संघर्ष शुरू हो गया था। कई परीक्षा में वे महज 2 से 4 नंबर तक चूके। लेकिन निराश नहीं हुए।

कोशिश नहीं छोड़ी, पढ़ते रहे-पढ़ाते रहे: विशाल पंड्या ने बताया कि शिक्षक बनने के लिए सबसे से पहली परीक्षा 2004-05 में हुई थी। 2 नंबर कम होने के कारण भर्ती से चूक गया। उस दौरान मेरिट 136 नंबर तक गई थी, और मिले 134 नंबर थे। इसके बाद शुरू हुआ संघर्ष का सिलसिला 2017-18 तक जारी रहा। जब अंतिम बार परीक्षा दी थी तब उम्र 37 साल से अधिक हो चुकी थी। जो अंतिम मौका था। सरकारी भर्ती के लिए उम्र की सीमा 35 साल है थी, लेकिन 2013 के बाद कोई भर्ती नहीं होने के कारण सरकार ने 35 प्लस 3 का मौका दिया था। 2017-18 में शिक्षक भर्ती में आवेदन किया। इस परीक्षा में कट आॅफ 60.75 प्रतिशत गई थी और मेरे 61.45 फीसदी अंक थे। आखिरकार सपना पूरा हो गया। पदस्थापन डूंगरपुर जिले के राउमावि सारंगी में मिला। विशाल ने बताया कि इन 13 सालों में 2 बार प्रथम श्रेणी, 3 बार द्वितीय श्रेणी और 7 बार तृतीय श्रेणी परीक्षा के लिए आवेदन किए थे। हर बार 4 से 5 अंकों के अंतर के कारण सफलता दूर होती गई। निराशा भी बहुत होती थी, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। इस स्थिति में परिवार मजबूती से साथ खड़ा रहा।

शुरुआत

शिक्षक दिवस पर दो संघर्ष की कहानियां

1956 में अपने हाथों से बनाई झोपड़ी में शुरू किया स्कूल, 84 की उम्र में आज भी सक्रिय

जगदीशचंद्र मेहता की सीख: 1. हर क्षेत्र में तैयार रहे, 2. खेल जीवन से दूर न होने दे

बांसवाड़ा| आज शिक्षक गांवों में नौकरी करने से बचते है, लेकिन जगदीशचंद्र मेहता की कहानी इससे अलग है। उन्होंने न केवल ग्रामीण अंचल में नौकरी की, बल्कि संसाधानों के अभाव में अपने हाथ से स्कूल बनाया और बच्चों को आगे बढ़ाया। आनंदपुरी पंचायत समिति के वरेठ गांव में 1 जून 1956 को बतौर तृतीय श्रेणी शिक्षक सेवा की शुरुआत करने वाले मेहता ने 1956 में झोपड़ीनुमा स्कूल स्वयं के हाथों से बनाकर शिक्षालय की स्थापना की। 31 जनवरी 1992 को प्रधानाध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुए। 84 साल की उम्र में आज भी उनके लिखने व सीखने का दौर जारी है।

सुदूर अंचल में नौकरी का अलग ही आनंद : 60 के दशक में स्कूलों के लिए न तो आज की तरह भवन होते थे और न ही संसाधन। अभावों और असुविधाओं के बावजूद घर से दूर आकर नौकरी का आनंद आता था। मैं किंग जॉज हाई स्कूल कुशलबाग में पढ़ रहा था उस समय एक बार मेरे शिक्षक हरिवल्लभ ने मुझे गणतंत्र दिवस पर अचानक संगीत के लिए बुला लिया। मैंने मेरे जीवन में उस समय तक कभी सार्वजनिक संगीत नहीं सुनाया था। मैंने उस समय भजन ही सुना दिया। देर तक तालियां बजती रही और गुरुजी ने मुझे शाबाशी दी। इस घटना के बाद मुझे हर क्षेत्र में तैयार रहने की सीख मिली। वर्ष 2004 में जिला प्रशासन द्वारा गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित बुजुर्गों की दौड़ में भी पहला स्थान प्राप्त किया था। खेलों को जीवन से कभी दूर नहीं होने दिया। बैडमिंटन, टेबल टेनिस, एथेलिटिक्स और वालीबॉल मेरे प्रिय खेल रहे हैं। इन खेलों की वजह से ही मैं उम्र की इस पड़ाव में खुद को तरोताजा महसूस करता हूं। रोज प्रात:भ्रमण जारी है। मुझे लगा कि व्यक्ति जीवन भर विद्यार्थी रहता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए 2006 में एमए की। अब भी सीख ही रहा हूं। -जगदीश चंद्र मेहता

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