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Wednesday 26 June 2019

नई शिक्षा नीति-2019-शिक्षा क्रांति का वादा!

अगर नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2019 का मसौदा उसकी परिकल्पना के मुताबिक 2035 तक अमल में आ जाता है तो क्या होगा? इसे 31 मई को नौ सदस्यों की के. कस्तूरीरंगन समिति ने केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय को सौंपा है.


आइए, अब कल्पना करें कि 2032 में पैदा हुए रोहन की जिंदगी कैसे आगे बढ़ेगी. जब वह तीन साल का होगा तो उसे 5+3+3+4 के ढांचे के तहत औपचारिक शिक्षा में दाखिल किया जाएगा. पहले तीन साल उसे स्कूल पूर्व तालीम मिलेगी—कम से कम तीन भाषाओं में—और वह भी उसे प्रशिक्षित शिक्षक देंगे. इस दौरान वह ककहरा, अंक, रंग और आकृतियां सीखेगा, पहेलियां हल करेगा और नाटक, कठपुतली के खेल, संगीत और हरकत से रूबरू होगा.

कोई पाठ्यपुस्तक नहीं होगी, सारी पढ़ाई-लिखाई खेल-खेल में और प्रयोगात्मक होगी, और ऐसे स्कूल परिसर में होगी जहां साफ-सुथरे शौचालय, लंबे-चौड़े कमरे, आइटी सक्षम गजट, खेलने की काफी चीजें और हंसी-खुशी का माहौल होगा. कक्षा 1 से 5 में उसे निश्चित घंटों में पढऩे और गणित सीखने का वक्त मिलेगा क्योंकि पांचवीं कक्षा तक उसे अक्षरों और अंकों का बुनियादी ज्ञान हासिल कर लेना होगा. अगर रोहन की कोई 'खास रुचि' और/या 'प्रतिभा' है—वह गणित, खेल, पेंटिंग या ऐक्टिंग में हो सकती है—तो शिक्षक उसे पहचानेंगे और विकसित करने के लिए मार्गदर्शन और प्रोत्साहन देंगे.

कक्षा 6 से आगे रोहन को पाठ्यक्रम से जुड़ी और पाठ्यक्रम से अलहदा गतिविधियों को लेकर फिक्र नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि गणित से लेकर खेल और संगीत और पेंटिंग तक तमाम विषय पाठ्यक्रम का हिस्सा होंगे. वह अपनी दिलचस्पी के विषय चुन सकता है. बेशक, कुछ साझा अनिवार्य विषय तो होंगे ही. इस पायदान पर उसे कुछ व्यावसायिक प्रशिक्षण देने की शुरुआत भी होगी ताकि वह तय कर सके कि कक्षा 9 में पहुंचने पर कौन-सा व्यावसायिक विषय लेगा. इस दौरान इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के जरिए उसका नियमित मूल्यांकन किया जाएगा और उसके सीखने के ग्राफ को रिकॉर्ड किया जाता रहेगा ताकि उसके लिए माकूल योजना बनाई जा सके. कक्षा 3, 5 और 8 के आखिर में इम्तिहान होंगे ताकि उसकी आलोचनात्मक सोच की क्षमता और उसकी भाषा तथा गणित के हुनर को मापा जा सके.

कक्षा 9 से रोहन छह-छह महीने के सेमेस्टर में तीन विषयों की ऑनलाइन बोर्ड परीक्षा देगा. इस परीक्षा का खाका इस तरह तैयार किया जाएगा जिससे मूल विषयों की उसकी समझ की परख हो, न कि उसके याद रखने या रटने के हुनर की. वह बोर्ड की परीक्षा साल में दो बार या शायद ज्यादा बार भी दे सकता है.

रोहन जब कक्षा 12 पूरी कर लेता है, तब वह अपने घर के पास के किसी भी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में जा सकता है, क्योंकि अच्छे उच्च शिक्षा संस्थान देश के हरेक जिले में खोले जाएंगे. वे तीन साल के या चार साल के नियमित कोर्स या व्यावसायिक कोर्स की पेशकश करेंगे. विकल्प के तौर पर यह भी हो सकता है कि व्यावसायिक प्रशिक्षण उसके डिग्री कोर्स में ही समाहित कर दिया जाए. यह 2020 के दशक की तरह नहीं होगा जब आपको एक धारा चुननी पड़ती है—सभी डिग्रियां बहुविषयक होंगी, जो उसे मिसाल के लिए इतिहास के साथ भौतिकशास्त्र पढऩे की इजाजत देंगी. अगर रोहन पेशेवर कोर्स से जुडऩा चाहता है, तो वह किसी भी यूनिवर्सिटी में जा सकेगा क्योंकि वे सभी बहुविषयक होंगी. तो इस तरह इंजीनियरिंग या मेडिकल डिग्री की पढ़ाई करते हुए वह समाज विज्ञान का विषय भी ले सकता है और यह पता लगा सकता है कि उसकी डिग्री उसके स्थानीय और वैश्विक पर्यावरण पर अच्छा असर कैसे डाल सकती है.

डिग्री कोर्स के आखिरी साल में रोहन रिसर्च का विकल्प चुन सकता है या तीन साल का डिग्री कोर्स पूरा करने के बाद एक साल रिसर्च कर सकता है. इस तरह वह पहले मास्टर डिग्री की पढ़ाई किए बगैर पीएचडी में दखिला ले सकेगा, हालांकि वह मास्टर डिग्री के बाद डॉक्टरेट का विकल्प भी चुन सकता है.

उसे, या उसके संस्थान को, उसकी रिसर्च के लिए धन की फिक्र नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि अगर उसका प्रोजेक्ट स्थानीय, राष्ट्रीय या वैश्विक मुद्दों से जुड़ा हो तो प्रोजेक्ट का खर्च नेशनल रिसर्च फाउंडेशन उठाएगा. अगर रोहन इतने लंबे वक्त तक अकादमिक जगत में रहना न चाहे, तो उसके पास कई विकल्प होंगे, उस चार साल लंबी उदार डिग्री के दौरान, जो उसे 21वीं सदी की ज्ञान अर्थव्यवस्था के लिए तैयार करेगी.

यह एक शुरुआती झलक भर है कि एनईपी 2035 तक देश की शिक्षा प्रणाली को किस तरह आमूलचूल बदलना चाहती है.

484 पन्नों का यह दस्तावेज विस्तृत योजना का खाका पेश करता है जिसमें स्कूल पूर्व, स्कूल और उच्च शिक्षा के साथ-साथ व्यावसायिक, वयस्क और शिक्षक प्रशिक्षण और नियम-कायदे शामिल हैं. यह नए रास्ते बनाने वाले कुछ सुधारों का भी सुझाव देता है, मसलन स्कूलों में शुरुआती बचपन की शिक्षा कार्यक्रमों को मजबूत करना, शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों पर ध्यान देना, स्कूल पाठ्यक्रमों में व्यावसायिक कोर्स जोडऩा, उच्च शिक्षा में रिसर्च के लिए धन जुटाने को बढ़ावा देना और उच्च शिक्षा में गुणात्मक बदलावों की खातिर शीर्ष नियामकीय निकायों का पुनर्गठन करना और नए निकाय बनाना.

स्कूल शिक्षा के क्षेत्र में कार्य कर रहे गैर-मुनाफा संगठन सेंट्रल स्कवायर फाउंडेशन के संस्थापक तथा चेयरमैन आशीष धवन कहते हैं, ''एनईपी में छात्र के शैक्षिक परिणामों में सुधार की खातिर फोकस बदलने के लिए कुछ साहसी और स्वागतयोग्य सिफारिशें की गई हैं. लेकिन हम अगर सभी बच्चों को अक्षर और अंकों के बुनियादी हुनर से लैस करना पक्का कर लेते हैं—तो इस अकेले प्रयास का शिक्षा प्रणाली पर जबरदस्त असर होगा.''

पढऩे और गिनने की तालीम

एनईपी 2019 का आमूलचूल बदलाव लाने वाला सुझाव स्कूल पूर्व शिक्षा को औपचारिक शिक्षा के ढांचे में शामिल करना है. एनईपी वैज्ञानिक स्कूल पूर्व शिक्षा की वकालत करती है और इसके लिए न्यूरोसाइंस की रिसर्च का हवाला देती है कि बच्चे के मस्तिष्क का 85 फीसदी विकास 6 साल की उम्र से पहले हो जाता है. यह राष्ट्रीय शिक्षा अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के 1992 में 30,000 बच्चों पर किए गए अध्ययन का भी हवाला देती है कि स्कूल पूर्व शिक्षा मिलने और स्कूल न छोडऩे तथा उपस्थिति की दरों और, सबसे अहम, प्राथमिक स्कूल तथा उससे ऊपर की शिक्षा के परिणामों के बीच परस्पर सीधा रिश्ता है.

स्कूल पूर्व शिक्षा का असर व्यक्तियों और देशों के आर्थिक विकास पर भी पड़ता है. जेएनयू में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा एक शोध का हवाला देते हैं कि बचपन में शिक्षा हासिल करने वाले लोगों की जिंदगी भर की कमाई उन लोगों से कहीं ज्यादा होती है जो बचपन में तालीम से वंचित रह गए थे. एनईपी का अनुमान है कि स्कूल पूर्व शिक्षा में किए गए 1 रुपए के निवेश के बदले देश को 10 रुपए का प्रतिफल मिलेगा. इसी के साथ अनुसंधान यह भी बताते हैं कि 8 साल से कम उम्र के बच्चे पाठ्यपुस्तक-उन्मुख शिक्षा के लिए तैयार नहीं होते. इसका अर्थ है कि हमारे बच्चों के बहुत बड़े हिस्से को वह शिक्षा नहीं मिल रही है जिसकी उन्हें जरूरत है.

मौजूदा वक्त में बचपन की ज्यादातर शुरुआती शिक्षा आंगनवाडिय़ां और निजी प्री-स्कूल दे रहे हैं. एकीकृत बाल विकास सेवाओं (आइसीडीएस) के तहत चलाई जा रही आंगनवाडिय़ों ने माताओं और शिशुओं की स्वास्थ्य देखभाल के लिहाज से अच्छे नतीजे दिए हैं, मगर शिक्षा के मामले में गच्चा दिया है. निजी प्री-स्कूल बेहतर बुनियादी ढांचा जरूर मुहैया करते हैं, पर उनके पाठ्यक्रम और पढ़ाने के तरीके ऐसे नहीं हैं जिसकी बचपन की शुरुआती शिक्षा के लिए जरूरत है.

इसमें ताज्जुब नहीं कि आंबेडकर यूनिवर्सिटी के 2017 के एक अध्ययन में पता चला कि सरकारी या निजी किसी भी संस्था से पूर्व प्राथमिक शिक्षा पूरी करने वाले हिंदुस्तान के बच्चों की बड़ी तादाद प्राथमिक स्कूल में दाखिले के काबिल नहीं थी. 2018 के एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) सर्वे ने पाया कि कक्षा 5 के 50 फीसदी छात्र ही कक्षा 2 की पाठ्यपुस्तक पढ़ पाते थे. सो, सकल नामांकन अनुपात कक्षा 1-5 के 95 फीसदी से घटकर कक्षा 9-10 में 79 फीसदी पर आ गया.

यही वजह है कि एनईपी की सबसे ऊंची प्राथमिकता 2025 तक प्राथमिक स्कूलों और उससे आगे की कक्षाओं में सार्वभौमिक बुनियादी साक्षरता और अंकज्ञान हासिल करना है. एनईपी का मसौदा कहता है, ''अगर यह सबसे बुनियादी शिक्षा—आधारभूत स्तर पर पढऩा, लिखना और अंकगणित—पहले हासिल नहीं की जाती, तो हमारे छात्रों के इतने बड़े हिस्से के लिए बाकी की नीति मोटे तौर पर अप्रासंगिक होगी.'' यह भी पक्का करना होगा कि 3 से 18 साल के बीच की उम्र के सभी छात्रों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा बाल अधिकार (संशोधन) 2019 के दायरे में लाया जाए. एनईपी यह भी सिफारिश करती है कि मौजूदा 10+2 के मॉडल की जगह एक 5+3+3+4 का पाठ्यक्रम और शिक्षा का वैज्ञानिक ढांचा लाया जाए जो बच्चे के संज्ञानात्मक और सामाजिक-भावनात्मक विकास की अवस्थाओं पर आधारित हो. यह सिफारिश करती है कि स्कूल पूर्व (3-6 वर्ष की उम्र) के तीन साल को कक्षा 1 और 2 (8 साल की उम्र तक) में मिलाकर इसे एक वैज्ञानिक शिक्षा इकाई बना दिया जाए जिसे 'बुनियादी चरण' कहा जाएगा. कक्षा 3-5 (उम्र 8-11 वर्ष) को तैयार चरण कहा जाएगा, जिसके बाद कक्षा 6-8 (उम्र 11-14 वर्ष) का माध्यमिक चरण होगा और आखिर में कक्षा 9-12 (उम्र 14-18 वर्ष) का उच्चतर माध्यमिक चरण होगा.

एनईपी का मसौदा कहता है कि 8 साल से कम उम्र के बच्चे भाषाएं ज्यादा तेजी से सीखते हैं और भाषा सीखना बच्चे के संज्ञानात्मक विकास का बेहद अहम पहलू है, इसलिए वह सिफारिश करता है कि इस अवस्था में बहुत-सी भाषाएं—कम से कम तीन—सिखाई जाएं. शिक्षाशास्त्री अलबत्ता इससे इत्तेफाक नहीं रखते. बेंगलुरू स्थित द टीचर फाउंडेशन की संस्थापक माया मेनन कहती हैं, ''यह सही नहीं है. बच्चों को अपनी गृह भाषा/मातृ भाषा में निपुणता हासिल करना जरूरी है, खासकर पढऩे और लिखने के भाषाई हुनर के मामले में, और तब कहीं जाकर वे दूसरी भाषा की औपचारिक पढ़ाई के लिए तैयार हो सकते हैं.''

1993 की ऐतिहासिक यशपाल समिति की रिपोर्ट 'लर्निंग विदाउट बर्डन' (बोझ के बगैर सीखना) को आगे ले जाते हुए एनईपी छात्रों पर विषय सामग्री और पाठ्यपुस्तकों के बोझ को कम करने का जतन करती है और तोतारटंत पढ़ाई को हतोत्साहित करती है. लिहाजा, पाठ्यक्रम की रूपरेखा में जोर पाठ्यपुस्तकों से सीखने पर नहीं बल्कि इसके बजाए अपने हाथों से करने, अनुभव और विश्लेषण से सीखने पर होगा. कला, संगीत, दस्तकारी, खेल, योग और सामुदायिक सेवा सहित तमाम विषय पाठ्यक्रम के हिस्से होंगे. पाठ्यक्रम बहुभाषा, प्राचीन भारतीय ज्ञान पद्धतियों, वैज्ञानिक मिजाज, नैतिक विवेक, सामाजिक जिम्मेदारी, डिजिटल साक्षरता और स्थानीय समुदायों के सामने मौजूद बेहद अहम मुद्दों की जानकारी को बढ़ावा देगा.

बोर्ड के इम्तिहान अब जिंदगी तय करने वाली और बेहद तनाव से भरी कवायद नहीं होंगे. कक्षा 8 और 12 के बीच छात्र साल में दो बार बोर्ड की परीक्षाएं दे पाएंगे. बाद में, जब कंप्यूटरीकृत अनुकूल परीक्षा प्रणाली व्यापक रूप से मौजूद होगी, तब उन्हें बहुत-सी परीक्षाएं देने की इजाजत होगी, कम से कम 24 विषयों में, या औसतन एक सेमेस्टर में तीन. परीक्षा में केवल मूल क्षमताओं, बुनियादी शिक्षा, हुनर और विश्लेषण की परख की जाएगी. एनईपी कहती है, 'छात्रों को कोचिंग और रट्टा मारे बगैर आसानी से पास होना चाहिए.'

एक और अवधारणा, जो 1964 की कोठारी आयोग की रिपोर्ट से ली गई है, स्कूल परिसरों का निर्माण करने की है. सरकारी स्कूलों को नए सिरे से बनाकर संगठनात्मक और प्रशासनिक इकाइयों में बदला जाएगा, जिन्हें स्कूल परिसर कहा जाएगा. इनमें एक सेकंडरी स्कूल (कक्षा 9-12 तक) होगा और उसके आसपास कई दूसरे स्कूल होंगे जो पूर्व प्राथमिक से कक्षा 8 तक की तालीम देंगे. स्कूल परिसर को अपने मातहत आने वाले सभी स्कूलों के अकादमिक और प्रशासनिक मामलों को संभालने की स्वायत्तता होगी और वे राज्य में स्कूल शिक्षा व्यवस्था के सबसे निचले पायदान के तौर पर काम करेंगे. परिसर के तमाम स्कूल शिक्षकों के एक साझा समूह की सेवाएं ले सकेंगे, जिससे कम शिक्षण संसाधनों वाले स्कूलों की भरपाई हो सकेगी.

हालांकि प्रथम की सीईओ रुक्मिणी बनर्जी को लगता है कि एनईपी में प्राथमिक चरण के बाद स्कूली शिक्षा को लेकर साफ-साफ दिशानिर्देश नहीं हैं. वे कहती हैं, ''प्राथमिक चरण से ऊपर आगे की प्रमुख बातें तो लिख दी गई हैं मगर इन बातों का तानाबाना बुनकर एक सुसंगत और व्यापक रूपरेखा बनाने के लिए और ज्यादा काम करने की जरूरत है.'' सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो किरण भट्टी एक बात और कहती हैं: ''एनईपी ने कई उदात्त लक्ष्य तय किए हैं मगर यह स्कूल परिसर से शुरू होकर ठेठ जमीनी स्तर पर क्षमता निर्माण के बारे में कुछ नहीं कहती.''

शिक्षक निर्माण

ढांचागत और पाठ्यक्रम से जुड़े इन बदलावों के बावजूद एनईपी स्वीकार करती है कि शिक्षक वह धुरी होंगे जिनके चारों तरफ शिक्षा की इस क्रांति को अंजाम दिया जा सकता है. एनसीईआरटी के पूर्व डायरेक्टर जे.एस. राजपूत को पूरा भरोसा है कि शिक्षकों को अधिकार संपन्न बना दिया जाए, तो यह नीति जरूर कामयाब होगी. वे कहते हैं, ''शिक्षा और शिक्षकों को उनका हक दो. शिक्षकों पर भरोसा करो, उन्हें पेशेवर तौर-तरीकों के साथ तैयार करो और उन्हें अपने कामों को अंजाम देने में सहायता दो. यह इस नीति के अमल की दिशा में पहला कदम होगा.''

एनईपी के मुताबिक, भविष्य में सभी शिक्षक चार साल की अनिवार्य उदार एकीकृत बैचलर डिग्री हासिल करेंगे और उसके बाद ही शिक्षक पात्रता परीक्षा (टीईटी) सरीखी भर्ती परीक्षा में बैठ सकेंगे. देश भर में शिक्षकों को शिक्षा देने वाली हजारों की तादाद में चल रही संस्थाएं बंद कर दी जाएंगी और केवल बहुविषयक उच्च शैक्षणिक संस्थाएं ही बीएड की डिग्री देंगी.

अलबत्ता माया मेनन को यह नाकाफी जान पड़ता है और इसके बजाए वे योग्यता प्राप्त शिक्षक का दर्जा हासिल करने के लिए लचीले तरीकों और वैकल्पिक रास्तों की पड़ताल करने पर जोर देती हैं, खासकर ऐसे पेशेवरों के लिए जो अपने करियर के बीच में शिक्षक बल से जुडऩा चाहते हैं. वे कहती हैं, ''नए सिरे से तैयार शिक्षक प्रशिक्षण नीति को गुणवत्ता के हल्का किए बगैर ज्यादा उदार होने की जरूरत है, जहां शिक्षक प्रशिक्षण के विश्वविद्यालय-आधारित बहु-विषयक कॉलेज एक रास्ता हो सकते हैं, वहीं जिला शिक्षा और प्रशिक्षण संस्थानों (डीआइईटी) का क्या होगा?''

यह नीति शिक्षकों को बेहतर कामकाजी माहौल मुहैया करने का लक्ष्य भी तय करती है. मसलन, उन्हें चुनाव करवाने, मिडडे मील पकाने और दूसरे श्रम-साध्य प्रशासनिक जिम्मेदारियों सरीखे गैर-शिक्षण सरकारी कामों से निजात दे दी जाएगी. असाधारण काम करने वाले शिक्षकों को मान्यता, पदोन्नति और तनख्वाह में बढ़ोतरी दी जाएगी; उन्हें ज्यादातर उनके गृह नगर में ही नियुक्त किया जाएगा; कामकाजी माहौल, संसाधन सामग्री और प्रशिक्षण के लिहाज से सहायता दी जाएगी; उनकी जवाबदेही बनाए रखने के लिए वक्त-वक्त पर कामकाज का मूल्यांकन किया जाएगा. हालांकि आलोचकों का कहना है कि यह नीति शिक्षकों की जवाबदेही तय करने में अब भी बहुत कुछ खाली छोड़ देती है. मेहरोत्रा कहते हैं, ''शिक्षकों की गैर-हाजिरी बड़ी बुराई है. यह नीति शिक्षकों के लिए जमीनी हकीकत के आधार पर निगरानी के किसी तंत्र की पेशकश नहीं करती.''

नालंदा-तक्षशिला मॉडल

उच्च शिक्षा क्षेत्र के लिए, एनईपी में कुछ गगनचुंबी लक्ष्य हैं जैसे 2035 तक सकल दाखिला अनुपात 50 प्रतिशत (मौजूदा 25 प्रतिशत) करना, सभी उच्च शिक्षा संस्थानों (एचईआइ) को स्वायत्तता और देश के हर जिले में एक गुणवत्ता विश्वविद्यालय खोलना. इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एनईपी तक्षशिला और नालंदा के प्राचीन भारतीय विश्वविद्यालयों का उदाहरण देती है, जिसमें देश-विदेश के हजारों छात्र-छात्राएं जीवंत बहु-विषयक वातावरण में अध्ययन कर रहे थे. यह प्रस्ताव करती है कि 2030 तक, सभी एचईआइ इन तीन में से किसी एक प्रकार के संस्थान बन जाएं—अनुसंधान विश्वविद्यालय, शिक्षण विश्वविद्यालय और कॉलेज.

एक विश्वविद्यालय का मतलब होगा उच्च-गुणवत्ता वाले शिक्षण, अनुसंधान और सेवाओं के साथ स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रमों की पेशकश करने वाले बहु-विषयक एचईआइ. विश्वविद्यालय एक विषयक नहीं होंगे; सभी विश्वविद्यालय, जिनमें प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भी शामिल हैं, बहु-विषयक होंगे.

कस्तूरीरंगन का मानना है कि यह बहु-विषयक दृष्टिकोण भारतीय छात्रों को भविष्य के नौकरी बाजारों के लिए तैयार करेगा. वे कहते हैं, ''यह सोचें कि कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआइ) जैसे तकनीकी विकास के कारण नौकरियां बहुत बदल सकती हैं या गायब हो सकती हैं. एआइ धीरे-धीरे परिष्कृत डोमेन-विशिष्ट कार्यों को संभालने में सक्षम होता जा रहा है, इसलिए व्यावसायिक शिक्षा को एकीकृत करना और बहु-विषयक जानकारियां प्रदान करना जरूरी है ताकि छात्रों को नई दुनिया में अपनी पूर्ण क्षमताओं का उपयोग करने के लिए तैयार किया जा सके.''

यह देखना भी दिलचस्प होगा कि क्या भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार उदारवादी शिक्षा में चार साल के बहु-विषयक स्ïनातक की डिग्री को लागू करने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेगी, जिसमें कई निकास विकल्प और उपयुक्त प्रमाणीकरण होंगे. यह उसी तर्ज पर होगा जैसा दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति दिनेश सिंह ने थोड़े समय के लिए लागू किया था, लेकिन तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी और वामपंथी झुकाव वाले फैकल्टी के विरोध के कारण वह उसे वापस लेने पर मजबूर हुए थे. एनईपी, हालांकि, तीन वर्षीय पारंपरिक स्नातक डिग्री को जारी रखने की भी अनुमति देती है.

एनईपी इस बात को भी समझती है कि अधिकांश विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में कोई शोध नहीं हो रहा है और विभिन्न विषयों में पारदर्शिता, शोध के लिए प्रतिस्पर्धी समीक्षा के साथ फंडिंग की कमी है. अधूरे अनुसंधान प्रस्तावों के लिए प्रतिस्पर्धी धन देने को एक राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन (एनआरएफ) की स्थापना की जाएगी. यह उन शैक्षणिक संस्थानों में अनुसंधान के बीजारोपण, उसे पल्लवित-पुष्पित करने और सुविधाजनक बनाने के लक्ष्य भी तय करेगा जहां अनुसंधान फिलहाल शैशवावस्था में है. एनआरएफ को 20,000 करोड़ रु. का वार्षिक अनुदान दिया जाएगा.

हालांकि इस कदम की व्यापक सराहना की गई है, लेकिन विशेषज्ञों ने तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा के लिए 'तवज्जो की कमी' के लिए एनईपी की आलोचना भी की है. उच्च शिक्षा मंच के संस्थापक ए.के. सेनगुप्ता कहते हैं, ''गंभीर समस्या यह है कि देश स्नातकों के रोजगार के लिए अनुपयुक्तता की समस्या से जूझ रहा है और शिक्षा तथा कौशल के बीच उचित पारस्परिक संबंध का अभाव है. एनईपी इस समस्या के बारे में बात तो करती है, पर दिशानिर्देश स्पष्ट नहीं हैं.''

पूर्व केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री एम.एम. पल्लम राजू ने भी यह कहा कि अकादमिक उद्योग को मजबूत बनाने के लिए एनईपी में कुछ खास नहीं है और फैकल्टी और उद्योग के बीच आदान-प्रदान के संबंध में भी कोई विशेष सिफारिश नहीं की गई है. वे कहते हैं, ''इसके अलावा, आइटीआइ और पॉलिटेक्निक किसी भी औद्योगिक राष्ट्र की रीढ़ हैं और इन्हें मजबूत करने की सिफारिशें भी इसमें नहीं हैं.''

हालांकि, अन्य लोगों को लगता है कि सभी धाराओं को एक ही नियामक—राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामक प्राधिकरण या एनएचईआरए—के तहत लाकर एनईपी वास्तव में व्यावसायिक शिक्षा के व्यवसाय के विस्तार को सुविधाजनक बना देती है. नारायण हेल्थ के अध्यक्ष और संस्थापक डॉ. देवी शेट्टी कहते हैं, ''दुनिया को 2030 तक 8 करोड़ पेशेवरों स्वास्थ्यकर्मियों की आवश्यकता होगी. भारत को इनमें से एक बड़े हिस्से को वैश्विक मानकों का ज्ञान देने की आवश्यकता है ताकि वे वैश्विक बाजार के लिए उपलब्ध हो सकें. इस तरह के प्रशिक्षण के लिए नीतिगत प्रावधान होने चाहिए.''

व्यवसाय का शीघ्र चयन

19-24 वर्ष आयु वर्ग के भारतीय कार्यबल में केवल पांच प्रतिशत के पास औपचारिक व्यावसायिक शिक्षा है, जबकि अमेरिका में यह औसत 52 प्रतिशत, जर्मनी में 75 प्रतिशत और दक्षिण कोरिया में 96 प्रतिशत है. नई शिक्षा नीति, 2025 तक कम से कम 50 प्रतिशत को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करने का लक्ष्य रखती है. अलग-अलग व्यावसायिक डिग्री प्रदान करने के अलावा, व्यावसायिक शिक्षा को स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्तर पर नियमित पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा. छात्रों को कक्षा 5 से ही व्यावहारिक प्रशिक्षण से परिचित कराया जाएगा. राजपूत कहते हैं, ''हाथ के हुनर और माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक कौशल प्राप्त करने में रुचि पैदा करने के पहले के प्रयास सफल नहीं हुए. यह हमारी स्कूली शिक्षा में एक बड़ी कमी है. वर्तमान प्रस्ताव व्यावसायिक और शैक्षणिक धाराओं के बीच कोई अलगाव नहीं करता और यह एक नया तथा साहसिक कदम है.''

नरेंद्र मोदी सरकार का पहले से ही चल रहे कौशल विकास कार्यक्रमों को मजबूती देने के लिए व्यावसायिक शिक्षा का पाठ्यक्रम, कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय के राष्ट्रीय कौशल योग्यता ढांचे पर जोर है. दीर्घकालिक लक्ष्यों की समीक्षा करने और एक अलग नेशनल कमेटी फॉर द इंटिग्रेशन ऑफ वोकेशनल एजुकेशन (एनसीआइवीई) की स्थापना की जाएगी.

'सुगम लेकिन चुस्त' नियंत्रण

शिक्षा की राष्ट्रीय स्तर पर निगरानी के लिए, एनईपी राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (आरएसए), जिसकी मांग शिक्षाविद् लंबे समय से कर रहे हैं, को स्थापित करने का प्रस्ताव करती है. आरएसए सतत और स्थाई आधार पर देश के शिक्षा दृष्टिकोण को लागू करेगा. प्रधानमंत्री आरएसए के प्रमुख होंगे और मानव संसाधन विकास मंत्री उसके उप-प्रमुख. इसके 50 प्रतिशत सदस्य राजनैतिक संस्थाओं से होंगे, शेष शिक्षा क्षेत्र के प्रतिष्ठित लोग होंगे. राज्यों में भी मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में राज्य शिक्षा आयोग गठित होंगे.

हालांकि, आरएसए में मजबूत राजनैतिक प्रतिनिधित्व और इसके प्रधानमंत्री के नियंत्रण में होने के प्रस्ताव के कारण कई विशेषज्ञ इसकी स्वायत्तता को लेकर सशंकित हैं. मेनन कहते हैं, ''यह सब शिक्षा के अधिक केंद्रीकृत नियंत्रण की ओर इशारा करता है. दशकों से भारतीय स्कूली शिक्षा के साथ यह बड़ी समस्या रही है, जहां सरकारें पारंपरिक रूप से नियामक और प्रशासक रही हैं और नवाचार, गुणवत्ता और उच्च मानकों के प्रति उनका उत्साह नदारद रहा है.'' भट्टी का कहना है, ''एनईपी ने मौजूदा व्यवस्था के समानांतर इतने सारे नए ढांचों का सुझाव दिया है. ऐसा लगता है कि समिति ने अतीत के ऐसे प्रयोगों से कोई सबक नहीं लिया है.''

एनईपी ने निजी क्षेत्र की शिक्षा को विनियमित करने के प्रति अपनी अस्पष्टता दर्शाई है कि निजी शैक्षणिक उद्यम गैर-लाभकारी उद्देश्यों से प्रेरित होंगे, वह उसकी इस क्षेत्र की अनभिज्ञता का परिचय देती है. हालांकि, सार्वजनिक और निजी स्कूलों दोनों के विनियमन का एक ही मानदंड और बेंचमार्क तय करने के एनईपी के प्रस्ताव का स्वागत भी हुआ है. धवन कहते हैं, ''हम नीति के विवरणों पर बहस कर सकते हैं, लेकिन यह कदम सही दिशा में उठाया गया कदम है, खासकर करीब 40 प्रतिशत बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं.''

क्या देश इसे साकार कर सकता है?

अधिकांश शिक्षाविदों का मानना है कि एनईपी ने भारतीय शिक्षा प्रणाली को प्रभावित करने वाली बीमारियों का निदान किया है और विशेष रूप से स्कूली शिक्षा में उपचारात्मक उपायों की पेशकश की है लेकिन असली चुनौती तो इसे धरातल पर उतारने की होगी. देश में नीतिगत उद्देश्यों का समृद्ध इतिहास है, लेकिन इनमें शायद ही किसी उद्देश्यों को कभी धरातल पर उतारकर महत्वपूर्ण बदलाव हुए हों.

मेनन कहते हैं, ''कार्यान्वयन में सबसे कठिन चुनौती अपर्याप्त और खराब बुनियादी संरचना होगी. वर्तमान में क्षमता निर्माण के अलावा जमीन पर काम कर रहे जिला और ब्लॉक स्तर के अधिकारियों और शिक्षकों का सहयोग प्राप्त करने के साथ-साथ उनकी कड़ी निगरानी में समय और संसाधनों के सबसे अधिक निवेश की जरूरत होगी.''

एनईपी इन चुनौतियों से वाकिफ है और यह स्वीकार करती है कि ''सावधानीपूर्वक योजना बनाने और जमीनी वास्तविकताओं को ध्यान में रखते हुए बेहतर क्रियान्वयन की रणनीति, व्यावहारिकता'' पर इसकी सफलता निर्भर करेगी. यह भ्रष्टाचार को 'शिक्षा व्यवस्था को विकृत करने वाले अहम कारक' के रूप में पहचानती है, लेकिन इससे निपटने के लिए कोई ठोस व्यवस्था प्रदान नहीं करती है.

राजू इन सिफारिशों पर सरकार की ओर से फौरी कार्रवाई चाहते हैं. लेकिन, बनर्जी कहती हैं, कहना आसान हो सकता है, करना नहीं क्योंकि इस नीति को क्रियान्वित करने के लिए विभिन्न स्तर पर सरकारों, इससे जुड़े हितधारकों और जनता के बीच समन्वित सहयोग की जरूरत होगी. बनर्जी कहती हैं, ''फाउंडेशन स्टेज के उद्देश्यों को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए, महिला और बाल विकास (जो आंगनवाडिय़ों के लिए जिम्मेदार है) और मानव संसाधन विकास मंत्रालयों के बीच समन्वय की आवश्यकता होगी. दोनों मंत्रालयों ने अतीत में बहुत करीब से मिलकर काम नहीं किया है.''

इसके अलावा, शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय ने 1968 की नीति में पहली बार परिकल्पित जीडीपी के 6 प्रतिशत के लक्ष्य को कभी प्राप्त नहीं किया है. वर्तमान में एनईपी की गणना के मुताबिक, सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3 प्रतिशत या सार्वजनिक व्यय का 10 प्रतिशत ही खर्च किया जा रहा है. नीति अगले 10 वर्षों में शिक्षा पर खर्च को बढ़कर 20 प्रतिशत तक पहुंचने की उम्मीद रखती है. इसे भारतीय अर्थव्यवस्था की तीव्र वृद्धि और जीडीपी-कर-अनुपात में हालिया वृद्धि से वित्तपोषित होने की आशा है.

कई नीति समीक्षक जीडीपी के प्रतिशत के बजाए सार्वजनिक व्यय के प्रतिशत के रूप में शिक्षा खर्च की गणना के विचार से असहज हैं. सेंटर फॉर बजट ऐंड गवर्नेंस एकाउंटेबिलिटी की प्रतिभा कुंडु कहती हैं, ''ऐसा कोई आश्वासन नहीं है कि उच्च आर्थिक विकास या बढ़ा हुआ कर-जीडीपी अनुपात शिक्षा पर अधिक खर्च को प्रेरित करेगा. अगले 10 वर्षों में शिक्षा बजट को दोगुना करना, अन्य क्षेत्रों पर होने वाले खर्च से समझौता किए बिना संभव नहीं है. समग्र रूप में देखें तो शिक्षा पर खर्च को जीडीपी से पृथक करने से फंड का नुक्सान ही होगा.''

धवन मौजूदा बजट को अधिक कुशलता से आवंटित करने के तरीके खोजने की सलाह देते हैं. वे कहते हैं, ''वित्तीय बाधाओं को देखते हुए, केंद्र को इन व्यापक नीति सिफारिशों के बीच अपनी प्राथमिकता तय करने की आवश्यकता होगी.''

एनईपी रिपोर्ट के मसौदे को अभी समीक्षा के कम से कम दो दौर से गुजरना होगा. 30 जून तक, आम लोग और संस्थान नीति पर सुझाव भेज सकते हैं; मानव संसाधन विकास मंत्रालय को अब तक लगभग एक लाख सुझाव मिले हैं. केंद्र सरकार 22 जून से राज्यों के साथ विचार-विमर्श शुरू करेगी. नीति जुलाई के अंत तक कैबिनेट की मंजूरी के लिए जा सकती है. हालांकि कागज पर तो यह नीति भारतीय शिक्षा प्रणाली में मूलभूत परिवर्तनों की क्षमता दर्शाती है, लेकिन इसकी अग्निपरीक्षा तो इस पर निर्भर करेगी कि धरातल पर यह कैसे उतरती है. पूर्व स्कूल शिक्षा सचिव अनिल स्वरूप कहते हैं, हमें दरअसल नीति की उतनी जरूरत नहीं है जितनी कि धरातल पर उसे उतारने की स्पष्ट कार्ययोजना की है. 

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